कैसे मन की अगन बुझे
राख मे शोल़े़, जलन तुझे
झुलसी लपटें क्यों सह कर
मौन मुखर!
दिल बोले हर अंग जले
वाणी सरगम की निकले
सांसे चुपचुप क्यों डर कर
मौन मुखर!
नभमण्डल के तारे मौन
जग की वाचा सुनता कौन
मानव आहें भरभर कर
मौन मुखर!
भाव भरी कविता गढ़ कर
सुरलय की सीढ़ी चढ़ कर
दिव्य साधना मे गल कर
मौन मुखर!
मौन शुन्य से निकली सृष्टि
ब्रह्मज्ञान की अनुपम द्रष्टि
मोक्षद्वार पर पहुंचेगा नर
मौन मुखर!
जीवन से कुछ राहें निकली
पर जिस दिन अर्थी निकली
प्राणो के स्वर हुये मुखर
मौन मुखर!
-हरिहर झा
(संगीत-रूप में उपलब्ध)
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/HariHarJha/HariHarJha_main.htm
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