फुसफुसाते वृक्ष कान में
सुन नहीं पाता
स्वयं में डूबा, मुझमें चढ़ रहा उन्माद।
मेरी अधूरी कामना,
अतृप्त इच्छायें
बीच कीचड़, नाद अनहद,
सुनू कहाँ इन्हें
परपीड़क सुख हँसे, रंगरेलियों के बीच
कलियों! डरो मुझसे, देता हूँ चुभन तुम्हे
सूक्ष्म ध्वनिया श्रवण
करना बड़ा मुश्किल
मन में कितना शोर, क्यों घिर आया प्रमाद।
मौन इस संवाद को समझूँ,
नहीं कुछ आस
कोई कंप्यूटर?
विश्लेषण करे कुछ खास
दिमाग की नस नस बना ली भले विश्वकोष
मूढ़ता में ना दिखे प्रकृति का भव्य रास
संगीत से घृणा,
कोलाहल भरा है प्यार
मौसम गज़ल गा रही, मैं दे न पाता दाद।
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