हरिहर झा

फ़रवरी 25, 2009

बाजार-भाव

Filed under: अतुकांत,हिन्द-युग्म — by Harihar Jha हरिहर झा @ 3:33 पूर्वाह्न

यौवन के घनेरे बालों की खुशबू

तिस पर ऐसा मोहक अनुरोध

अनमोल है यह  पल

इस निराले उन्माद में

यह रूठना मनाना

नाजुक कलाई  से  उभरता प्यार

कल भले ही मरघट की

सीढ़ियों पर चढ़ कर

गुमनाम हो जाय

उल्का की तरह चमक कर

विलुप्त हो जाय

न जाने कब धूल-धुसरित कर दें

काल के धागों में गुंथे अलगाव;  

कला से ढांपे हुये  जिस्म

रूह को बाजारी बना दें

गुणवत्ता के मापतोल

दूकानों पर मिलते कमिशन

लचीली शर्तें

मोहक विज्ञापन के  जादू 

बाजार-भाव के एहसास

लाभ की

मनोवृत्ति से उफनती आँच

न जाने कब

इस क्षण के घरौंदे को

लपेट कर

सब कुछ निगल जाय !

 

    -हरिहर झा

  http://kavita.hindyugm.com/2008/11/blog-post_07.html 

 Your Look!

http://hariharjha.wordpress.com/2009/01/21/your-look/

 

http://hariharjha.wordpress.com/

 

 

 

 

 

फ़रवरी 12, 2009

चिड़चिड़ी

Filed under: अतुकांत,हिन्द-युग्म — by Harihar Jha हरिहर झा @ 10:16 अपराह्न
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केवल उंगलियां देख कर
घबराती ग्वालिन
देख रही अपनी ’मौसी’ का चेहरा –
आग-बबूला
पहाड़ से लुढ़कते पत्त्थर सा क्रोध
उफनती नदी खो चुकी अपनी शालिनता
काँपते हुये हिरन के बच्चे
कुलांचे भरते
देखते कगार पर अपनी मृत्यु
कत्लगाह से छुट पाने की विफलता पर
बैठे अनमने हो कर
पलकें एकटक
जिनके बोल खो जाते कहीं धुएँ में ।

देखा था मौसी ने –
ऋषि-मुनियों के यज्ञ की आहुति का धुआँ –
टकराते चकमक पत्थर से निकलती
अग्नि से प्रज्ज्वलित हवन
जिसके साथ जुड़ी प्रार्थना और श्रद्धा ने ही
बददिमाग कर दिया मौसी को
अब तो कण्डे के उपले भी
जल कर उसे देने लगे हैं
तंग करती हुई गुदगुदी
क्यों नहीं सह पाती
अपने लाड़ले बेटों की शरारत ?
कहती है –
“सिगरेट सा यह धुआँ !
क्यों छोड़ते हो अधोवायु
तुम्हारी बिना बैल की गाड़ी से ?
और तु्म्हारे कारखानो के
इन मशीन-पुर्जों में
हाय राम !
खुद ही पीसी जा रही हूँ
कब तक जलाऊंगी अपनी चमड़ी
और अस्थियां !
बड़ी तकलिफ देते हो मुझे !
कहे देती हूँ
मरोगे बिना मौत
मैं आगा-पीछा नहीं देखती
गुस्से में
शुरू कर दूंगी
मेरा काली-नृत्य शुरू
तो फिर कोई शिव की छाती
रोक नही पायेगी
मेरे पैर !”

सठिया गई है मौसी
देखी नहीं जाती उससे
हमारी प्रगति
हमारी समृद्धि और विकास
कोढ़ के मरीज सी
बदसूरत हो चली
चिड़चिड़ी मौसी ।

-हरिहर झा

http://kavita.hindyugm.com/2008/10/blog-post_17.html
her teasing face:
http://www.poetry.com/dotnet/P8989404/999/4/display.aspx

her teasing face

फ़रवरी 2, 2009

मेरे उसूल

Filed under: अतुकांत,हिन्द-युग्म — by Harihar Jha हरिहर झा @ 5:50 पूर्वाह्न

मैं प्रोफेसर

मेरे कुछ उसूल हैं

भले हो  विद्यार्थिनी

कुछ पक्षपात नहीं करता

मेरे घर का दरवाजा

पढ़ने के लिये कौन खटखटाता

इसका एहसास नहीं होता मुझे

ढँक लेता कोहरे में

उसकी शारीरिक-संरचना

मैं लहरों की कगार पर खड़ा

नहीं देखता  उफनती नदी

बगिया की 

पंखुड़ी अपनी अल्हड़ अदा में

भले ही खिल रही हो

बाँहे फैला कर नहीं तलाशता मैं

प्रेम की फुहार;

नहीं महसुसता

आंचल से प्रस्फुटित प्रेम

भले हों किसी की बाहों में भटकती

हजारों तमन्नायें

नही सिमटता उसमें

 खेल रही हो अठखेलियां

तो नहीं  देखता मैं  गर्दन उचकाये

नहीं बुझाता अपनी प्यास

 यह सिद्धान्त ही मेरा संयम

http://kavita.hindyugm.com/2008/12/blog-post_1818.html

Your Look :

http://hariharjha.wordpress.com/2009/01/21/your-look/