नहीं बनाना मुझे सहेली-वहेली
खुश हूँ अपने आप में
अपने काम से काम
मेरा अंतर्मुखी स्वभाव इजाजत नहीं देता
यह क्या हो गया है मुझे पता नहीं
क्यों मैं अपने आप में सिमटती जा रही हूँ?
हार गई वह बेचारी
मेरा दुखी मन सहला-सहला कर
कितना मुश्किल है यह सब !
पर न उठी मेरे मन के गलियारे में
खुशियां और किलकारियां
तो सुना डाली उसने मुझे वह
टिमटिमाते तारों में छिपी कहानी
खोल दी अपनी अंतरंग दास्तान
चाहती तो बचा कर रख सकती थी
अपने पति को
जिसके पैरों की आहट थी
सौगात मेरे लिये
पर सहेलीनुमा विश्वास जीतने के लिये
भेजे ई-मेल
दिखा डाले उसने
अपने हनिमून पर लिये फोटो
कुछ विडम्बना ही हुई थी ऐसी
वह भी जानती है
उन फोटो में उसकी जगह पर
मैं हो सकती थी
पर अंगड़ाई ली समय ने
मैं पत्थर-दिल
सह गई सब कुछ
कब उठे और
कब अर्पित हुये भाग्य को
मेरे विद्रोह
एहसास भी न हुआ किसी छोर पर
पर अब मैं अनाप-शनाप
कुछ भी सोंचती हूँ
कि चुड़ैल है वह !
पगला गई हूँ
नहीं जान पाती
कि क्यों चिड़ायेगी वह बच्चों की तरह
या जलायेगी मुझे
कि मेरा प्रेमी है उसके कब्जे में
भला क्यों छिड़केगी
जले पर नमक ?
पर मैं हूँ कि कतराती हूँ
आँख चुराती हूँ उससे
अशिष्ट होती जा रही हूँ उसके साथ ।