मैं अकेला सिसकता हूँ, काल की कर्कश ध्वनि सुनता। बेड़ियों में खुद को जकड़, लागे है कोई छलता देख औरों की सफलता, अंगारों में दिल जलता ऊटपटांग भाव उठते, छा गई ईर्ष्या की मलिनता। देख आँखे टपक जाती किसी के सुहावने पंख देख कर कोई पुरस्कृत, जलन से उग जाते डंख टूट कर मै छटपटाता, शून्य में पथराई, हीनता मन का मुरारी रिझाने मक्खन लगाया लाड़ में ”मैं” की फँफूदी हर जगह, हर कोई जाय भाड़ में डग चले हैं आसमाँ में, लूँ लांघ सीढ़ी, है विवशता ढोल मेरा, डंका बजे, काटे मुझे कौन कीड़ा समझो महामहिम मुझको, लघु-ग्रंथी, देती पीड़ा जग मान जाय तो भी क्या खुद मान लेने में कठिनता। http://www.sahityasudha.com/articles_Dec_2nd_2017/kavita/harihar_jha/jalan.html