डराती हैं खुली पलकें,
नींद पाने हो रहा मनुहार।
झूलते बसंत
हिचके में कि
जिनको डस गया कोहरा
घर जला कर दीप को
शातिर खिलाड़ी बनाते मोहरा
जला कर हर पंखुड़ी
वे कह रहे हैं
होली का त्योहार।
रिश्तों में पकती खीर चुप
मदिरा की भट्टी दे रही घुड़की
साकी को,
ढाँपते रेशे उड़े
लिबासों की धज्जियाँ ठिठकी
नोचते हैं गिद्ध,
घायल जंतुओं से प्यार का इजहार।
दहकती धरती को
सूरज थपकियां दे;
बहुत ही खलता
बवण्डर एहसान में
कुछ झोपड़ों को
चूम कर चलता
दहकती साँसे चली
छूकर त्वचा से,
दंश का व्यवहार।
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