हरिहर झा

सितम्बर 13, 2007

खिलने दो खुशबू पहचानो

Filed under: अनुभूति,तुकान्त,मंच — by Harihar Jha हरिहर झा @ 12:06 पूर्वाह्न

विषम स्थिति हो लोग पराये फिर भी सब मे ईश्वर जानो
भांति भांति के फूल जगत मे खिलने दो खुशबू पहचानो

 

अन्तरिक्ष में ज्वाला भड़की चांद सितारे अस्त हुए
महाकाल ने डेरा डाला देवलोक भी ध्वस्त हुए
शीत लहर में आहें सिसकी कैसा यह हिमपात हुआ
चरम अवस्थाओं के झूले घात गई प्रतिघात हुआ

 

कहा धरा ने संयम बरतो देखो जीवन को पहचानो
बगिया बोली कली प्यार की खिलने दो खुशबू पहचानो

 

धर्म मार्ग पर यथा बाल शिशु किलकारी भरते जाते
भक्तिभाव का रस पी पी कर आनंदित होकर गाते
छन्द ताल मे बहे नदी उन्मुक्त बहे गति से झरना
शब्द ब्रह्ममय जगत यहां बिन दाग चदरिया को धरना

 

पोंगा पंडित इतराया तुम वेदशास्त्र को क्या जानो
कहा जगत ने अरे इन्हे भी खिलने दो खुशबू पहचानो

 

जंजीरों मे घिरी नारियां हुई स्वतन्त्रता बेमानी थी
देवी कह कर फुसलाया शोषण की नीति ठानी थी
सूत्रपात हो क्रान्ति काआधीदुनियांको होश हुआ
प्रगति पथ पर अधिकारों की समता का उद्घोष हुआ

 

भोग्या नहीं, नहीं अबला है स्त्रीशक्ति को पहचानो
प्रेमस्रोत के फूल महकते खिलने दो खुशबू पहचानो 

 

हरिहर झा

http://www.anubhuti-hindi.org/smasyapurti/samasyapurti_03/03_04pravishtiyan3.htm#hj 

 

For “Hunger – 3 Faces: (  Which one is 3rd Face?) 

http://hariharjha.wordpress.com/

OR

http://hariharjha.wordpress.com/2007/09/11/hunger-3-faces/

अगस्त 2, 2007

रिमझिम यह बरसात

Filed under: अनुभूति,तुकान्त — by Harihar Jha हरिहर झा @ 2:17 पूर्वाह्न

 मनमयूर लो नचा गई
रिमझिम यह बरसात
लिखी किसी के भाग्य मे
आंसू की सौगात
 
भीगा सावन प्यार मे
जल मे भीगा बदन
सजनी साजन से करे
कैसे प्रणयनिवेदन?
 
छमछम पायल बज उठे
चूड़ी बजती खनखन
बोल नहीं पाते अधर
झूमता आया पवन
 
कानों में कुछ कह गया
प्यारीप्यारी बात
मनमयूर लो नचा गई
रिमझिम यह बरसात
          * 
पिया बिना बरसात मे
काटी रतियां जाग
वेणी फूलों से लदी
डसती जैसे नाग
 
अंगारों सा क्यों लगे
हराभरा यह बाग
तन जल मे मन जल उठे
पानी मे यह आग
कांटे दिल तक ना चुभे
दी गुलाब ने मात
लिखी किसी के भाग्य मे
आंसू की सौग़ात
        * 
डूब गया घरबार सब
बहा गई लंगोट
किया बसेरा फटी हुई
चादर की ले ओट
 
हेलीकोप्टर आ गए
नेता मांगे वोट
आंसू मगरमच्छ के
दिल पर करते चोट
  
फंड हजम कर रो रही
जनता को दी लात
लिखी किसी के भाग्य मे
आंसू की सौगात।
– हरिहर झा
 

 http://www.anubhuti-hindi.org/sankalan/varshamangal/sets/41aug.html
 

जुलाई 26, 2007

न जाने क्यों

Filed under: अतुकांत,अनुभूति — by Harihar Jha हरिहर झा @ 12:00 पूर्वाह्न

भूख से कराहते बालक को देख कर
न जाने क्यों
मेरे हाथ
उसे रोटी देने के बदले
दार्शनिक गुत्थी मे उलझ गये 
कि भूख क्या है और दुख क्या
शरीर क्या है और आत्मा क्या ?

निरीह अबला को
घसीट कर ले जाते देख कर
न जाने क्यों मेरी आंखे
उस दो हडि्डयों वाले पापी को 
शर्म से डुबाने के बदले
विचार मे खो गई कि यहां
मजबूर कौन है और अपराधी कौन 
प्यार क्या है और वासना क्या ?

 

साम्प्रदायिक दंगे मे 
जिन्दा छुरियों और कराहती लाशों के बीच
चीत्कार सुनने के बदले
न जाने क्यों मेरे कान
दुनियादारी का नाम देकर 
ओछेपन की दलदल मे उतर गये 
यहां हिन्दू कौन है और मुसलमान कौन
अपना कौन है और पराया कौन ?  

 

बांध का छेद बुदबुदाते देख
न जाने क्यों 
मेरे पग 
सुप्त तत्रिंयो और ऊंघते दरवाजों को 
भड़भड़ाने के लिये 
भागने के बदले 
विप्लव के आह्वान मे डूब कर
प्रलय की कल्पना करने लगे 
कि अब 
मनु कौन है और कामायनी कौन 
सृष्टि क्या है और वृष्टि क्या ?  

 

न जाने क्यों 
क्यों और क्यों ?
मेरे आंख कान हाथ पग 
सब के सब दिमाग हो गये हैं 
और दिमाग
इन धूर्त बाजीगरों की कठपुतली ।

-हरिहर झा

http://www.anubhuti-hindi.org/dishantar/h/harihar_jha/na_jaane.htm

फ़रवरी 26, 2007

पतझड़*

Filed under: अनुभूति,तुकान्त,मंच — by Harihar Jha हरिहर झा @ 9:15 पूर्वाह्न

 -हरिहर झा

आंसू मे डूबी वीणा ले मधुर गीत मै कैसे गाता
बचपन मेरा सूखा पतझड़ हरियाली मै कैसे लाता

खेलकूद सब बेच दिया बस दो पैसों के खातिर
बहा पसीना थका खून खाने को तरस गया फिर
गिरवी रख कर बचपन मजदूरी से जोड़ा नाता
शाला कैसे जा पाता जब रूठा हाय< विधाता

तरस गया देह ढंकने को यूनिफार्म कहां से लाता
बचपन मेरा सूखा पतझड़ हरियाली मै कैसे लाता

बस्ता लिये चला स्कूल मै सपना ऐसा देखा   
सोने के मेडल से चमकी अरे! भाग्य की रेखा
दिनभर शरीर झुलसाने के झगड़े हो गये दूर
भोंपू बजा कान मे मेरे सपने हो गये चूर

कैसे भूखा रह कर र्खचा फीस किताबों का कर पाता
बचपन मेरा सूखा पतझड़ हरियाली मै कैसे लाता

किस्मत ऐसी कहां कि हंस कर किलकारी मैं भरता
रोज बाप की गाली खाकर पिट जाने से डरता
कैसे अपने आंसू पोछूं  नरक बना यह जीवन
गुमसुम सोच न पाता कैसे दुख झेले यह तनमन

मां बूढ़ी बीमार खाट पर उसे खिलाता क्या मै खाता
बचपन मेरा सूखा पतझड़ हरियाली मै कैसे लाता।

1 जून 2005

*(संगीत-रूप में उपलब्ध)

http://www.anubhuti-hindi.org/dishantar/h/harihar_jha/patjhad.htm

http://narad.akshargram.com/archives/author/harihar-jha/

फ़रवरी 18, 2007

मां की याद

Filed under: अनुभूति,तुकान्त,मंच,साउथ एशिया टाइम्स — by Harihar Jha हरिहर झा @ 7:56 पूर्वाह्न

मां के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई
पंचतारा होटलों की शान शौकत कुछ न भाई

  
बैरा निगोड़ा पूछ जाता किया जो मैंने कहा
सलाम झुकझुक करके मन में टिप का लालच रहा
खाक छानी होटलों की चाहिए जो ना मिला
करोध मे हो स्नेह किसका?  कल्पना से दिल हिला

प्रेम में नहला गई जब जम के तेरी डांट खाई
मां के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई

तेरी छाया मे पला सपने बहुत देखा किए
समृद्धि सुख की दौड़ मे दुख भरे दिन जी लिए
महल रेती के संजोए शांति मैं खोता रहा
नींद मेरी छिन गई बस रात भर रोता रहा

चैन पाया याद करके लोरी जो तूने सुनाई
मां के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई

लाभ हानि का गणित ले जिंदगी की राह में
जुट गया मित्रों से मिल प्रतियोगिता की दाह में
भटका बहुत चकाचौंध में खोखला जीवन जिया
अर्थ ही जीने का अर्थ, अनर्थ में डुबो दिया

हर भूल पर ममता भरी तेरी हंसी सुकून लाई
मां के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई।

 -हरिहर झा
16 मई 2006

http://www.anubhuti-hindi.org/sankalan/mamtamayi/maakiyaad2.htm

फ़रवरी 16, 2007

चुप हूं

Filed under: अनुभूति,मंच,शेर,साउथ एशिया टाइम्स — by Harihar Jha हरिहर झा @ 7:06 अपराह्न

खुल कर रोया था जनमने के बाद
हालात अब ये है कि बरसों से चुप हूं।

अंदाज़े-बयां था कातिल का जुर्म किसका है
सामने उसके उसका नाम लेने से मैं चुप हूं।

भूखा पेट मेरा और डकार लेने को कहा
चूहा पेट का न दिख जाय इसलिए मै चुप हूं।

सोचा था हंस हंस कर पियेंगे ग़म के आंसू
सैलाब ग़म का आया इसलिए मैं चुप हूं।

दिल से दरिया-ए-इश्क बहा देने के बाद
कहा कि अब अश्क बहा इसलिए मैं चुप हूं।

घाव पर मलहम के बदले नमक छिड़का
ये भी क्या कम है खुदा कि मैं चुप हूं।

गुनाह बहाना बना नए गुनाह करने को
फंसा दलदल मे पर ये तमाशा कि मैं चुप हूं।

क्या बोलूं जब पूछा खुदा ने गुनाहों का सच
सच केवल इतना ही कि तू पूछे और मैं चुप हूं।

http://www.anubhuti-hindi.org/dishantar/h/harihar_jha/chup.htm

प्रीत के गीत

Filed under: अनुभूति,तुकान्त,मंच — by Harihar Jha हरिहर झा @ 6:57 अपराह्न

कोयलिया प्रीत के गीत गाने लगी
दिल धड़कता रहा मन मचलने लगा
चांदनी श्वेत परिधान से सज गई
खिलखिलाता पवन छेड़ता ही रहा

इठलाती डालिया मन्द मन्द झूलती
दो हृदय बांध कर गुदगुदाने लगी
सरिता भी कलकल का स्वर सजाती हुई
छलछल के नाद से गीत गाने लगी

पेंजनिया छमछम बजने बजाने लगी
अवनि के हृदय में ज्वार उठने लगा
कोयलिया प्रीत के गीत गाने लगी
दिल धड़कता रहा मन मचलने लगा

आया मधुमास अब कलियां बोराई
प्यार के वार में छटपटाने लगी
वसन्त आया तो बहकती झुमती
मदिरा के प्यालों सी डगमगाने लगी

बिंबों प्रतिबिंबों के चंचल से चितवन मे
सृष्टि का सूर्य भी मुस्कराने लगा
कोयलिया प्रीत के गीत गाने लगी
दिल धड़कता रहा मन मचलने लगा

दूर किसी प्रेम मन्दिर के देव की
सुमधुर घंटियां झनझनाने लगी
नृत्य करती रति मृदंग की थाप पर
मधुकर के गीत की धुन सुनाने लगी

ताल गंुजती हुई लय डुबाती हुई
तन थिरकता रहा मन चहकने लगा
कोयलिया प्रीत के गीत गाने लगी
दिल धड़कता रहा मन मचलने लगा

-हरिहर झा

http://www.anubhuti-hindi.org/smasyapurti/samasyapurti_02/02_04pravishtiyan6.htm#hj

गुनगुनी धूप है

Filed under: अतुकांत,अनुभूति — by Harihar Jha हरिहर झा @ 6:51 अपराह्न

अलगाई लतिका ने
वृक्ष के सीने को
ले लिया बाहों में
हंस पड़ा पवन
मुस्काया मन ही मन
रात तो है जा चुकी
अब गुनगुनी धूप है

क्षीर का स्नान कर
विदा ली थी चांदनी ने
भेज गई सुरभि
गुलाब की पंखुड़ी में
सेज की गंध घुली
बोराए बहार में
गाने लगे अलि
झूम रहे तितली पर

उभरी थी प्रीत कभी
सपनों की सरगम से
निशा की डराती
गुफा से गुजरता
दहकती दुपहरिया की
स्वेद का समागम
गंगा की;, गगन की
गहराई में
यही गुनगुनी धूप है।

रजनी निगोड़ी
पोत गई थी कालिमा
अवनि के मुख पर
शबनमी आंसू बहा
रोती मचलती बावरी
कोन पोंछे कालिमा अब
कोने पोंछे आंसुओं को
मीठी मीठी सुबह आई
हर्षमय उल्लास देती
सौन्दर्य का उपहार देती
गुनगुनी यह धूप है।

-हरिहर झा

http://www.anubhuti-hindi.org/smasyapurti/samasyapurti_01/01_04pravishtiyan1.htm#hj

रावण और राम

Filed under: अतुकांत,अनुभूति,साउथ एशिया टाइम्स — by Harihar Jha हरिहर झा @ 6:40 अपराह्न

अमरत्व की आकांक्षा से लथपथ रावण
कांचन कामिनी के पीछे भागता
अहं- 
जो धुएं की लकीर
उसे बचाने के लिये सारी रात जागता

रंगोली को ंमिट्टी समझ
मिटा देता यहांवहां
दस मुखों वाली पहचान
बेचारा छुपाएगा कहां!

घबराता सूर्य से
उसे जीत लेने का दंभ भरता
झूठी तसल्ली के लिए
उसका दास की गिनती मे आवाहन करता

कलुषित भाव कुछ दे न पाया
पर झनकती तमन्ना सिर निकालती
खुजालखुजाल कर पीड़ा को
सुख पाने की इच्छा पालती

मृगतृष्णा का छोर न मिला
पाप पुण्य से कैसे लड़े?
सिंहासन डगमगाने लगा
मृत्यु के देव सामने खड़े

तो छोड़ कर अपनी काया
ज़मीर के कण बिखेरता हुआ
घुलमिल गया हम सब की अस्थिमज्जा में
नखशिख तक वही लंकेश
अपनी पूरी साज़सज्जा में

बस, अब मन का राम
मुदित, सुरक्षित
साथ में रावण
तो अब फिर से
अयोध्या का राज छोड़ कर
राम जंगल नहीं मांगेगा
धोबी के कहने पर
सीता को नहीं त्यागेगा

लो, वृत्तियों की वानरसेना को मिला
लंकादहन का काम
अब भीतर ही भीतर लड़ लेंगे
रावण और राम।

-हरिहर झा

16 अक्तूबर 2006

http://www.anubhuti-hindi.org/dishantar/h/harihar_jha/ravanaurraam.htm

फ़रवरी 1, 2007

न इतना शरमाओ*

Filed under: अनुभूति,गीत,मंच,हिन्दी — by Harihar Jha हरिहर झा @ 9:30 पूर्वाह्न

 मधुर मिलन की दो घडियों में
प्रिये ! न इतना शरमाओ
उषा की लाली लज्जित हो
घनमाला में छिप जाए

छलक उठी नैनों की मदिरा
बह जाने के लिये नहीं है
मुस्कानों में फूल महकते
मुर्झाने के लिये नहीं हैं
युवा उमंगों की यह सरिता
थम जाने के लिये नहीं है
खिली कली या मादक यौवन
संकुचाने के लिये नहीं है

इतराओ रूठो मुस्काओ पर
इतना मत शरमाओ
उषा की लाली लज्जित हो
घनमाला में छिप जाए

इंद्रधनुषी मुद्राएं
घूंघट में खेलीं किसने जानीं
प्रीत की लहरें मन ही मन
उठीं भला किसने पहचानीं
अल्हड़ यौवनकी अल्हड़ता
मादकता किससे अनजानी
नहीं गुदगुदाता कोकिल स्वर
बोलो बगिया की रानी

मदमाती मत पलकें मूंदो
यों इतनी मत शरमाओ
उषा की लाली लज्जित हो
घनमाला में छिप जाए

 -हरिहर झा

*(संगीत-रूप में उपलब्ध)

http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2003/05_24_03.html

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