खून शहर का निसार
सपनों की लाली पर
मनवा क्यों नाच रहा
शीशे की थाली पर
दारू की बोतल में
जिजीविषा हार गई
फड़फड़ है घायल तन
नाजुक मन मार गई
लुटा गई जिस्म यहाँ
भँवरे की गाली पर
’हाँसिल हो’ ये बुखार
जीते हैं मरते हैं
भूतों के अड्डों में
अट्टहास करते हैं
महलों के ख़्वाब चले
जगते हैं ताली पर
निबटाते काम-काज
थक कर यों चूर हुये
सुस्ताते, सोच रहे
घर से क्यों दूर हुये
मछली से आन फँसे
सिक्कों की जाली पर
– हरिहर झा
नवगीत की पाठशाला से साभार :
http://navgeetkipathshala.blogspot.com/2011/07/blog-post_25.html
http://www.boloji.com/index.cfm?md=Content&sd=Poem&PoemID=2802